
Introduction- Thinking Fast and Slow Summary in Hindi (परिचय)
कल्पना कीजिये की आप किसी ग्रोसरी स्टोर में शॉपिंग करने जा रहे हैं जहाँ दुनिया भर के प्रोडक्ट्स आपकी अटेंशन ग्रैब करने के लिए एक दूसरे से लड़ रहे होते हैं। और इस भीड़ में से जब आप किसी प्रोडक्ट को चूज़ करके अपने शॉपिंग कार्ट में रखते हैं तो आप अनजाने में अपने सोचने के दो अलग-अलग तरीक़ो सिस्टम -1 और सिस्टम-2, से जूझ कर किसी एक नतीजे पर पहुँचते हैं। इन 2 सिस्टम्स को प्रसिद्द मनोवैज्ञानिक और नोबेल प्राइस विनर डेनियल कन्नमैन ने अपनी बुक “थिंकिंग, फास्ट एंड स्लो” में हमारे सामने रखा है और बताया है की कैसे ये 2 सिस्टम्स हमारे निर्णयों और हमारे व्यव्हार को प्रभावित करते हैं।

ऑथर हमें बताते हैं की हमारा दिमाग एक ऑर्केस्ट्रा की तरह काम करता है, जिसमे दो अलग-अलग सिस्टम्स हमारे डिसिशन मेकिंग में अलग- अलग रोल प्ले करते हैं। सिस्टम 1 मास्टर है जो इंस्टेंट और इन्टुइटीव प्रतिक्रियों के साथ ऑर्केस्ट्रा को लीड करता है। वहीँ दूसरी ओर सिस्टम 2, कंडक्टर के तरह है जो अच्छी तरह सोचना-समझना और सावधानीपूर्वक विचार-विमर्श सुनिश्चित करता है। इन दोनों सिस्टम्स को समझकर हम अपने निर्णय लेने की क्षमता को बेहतर समझ सकते हैं और अपनी डिसिशन मेकिंग को बेहतर बना सकते हैं।
तो आइये दोस्तों, बिना समय व्यतीत किये शुरू करते है Thinking Fast and Slow Summary in Hindi ।
About the author (लेखक परिचय)
1934 में तेल अवीव में पैदा हुए इजरायली-अमेरिकी मनोवैज्ञानिक डैनियल काह्नमैन ने अपना जीवन मानव मन को समझने के लिए समर्पित कर दिया है। जजमेंट और डिसिशन मेकिंग में किये गए उनके शोध ने उन्हें दुनिया भर में ख्याति अर्जित की हैं, जिसमें 2002 में वर्नोन एल. स्मिथ के साथ मिला आर्थिक विज्ञान में नोबेल पुरस्कार भी शामिल है।
काह्नमैन द्वारा की गयी इस रिसर्च ने न सिर्फ मानव व्यव्हार को समझने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है बल्कि इस रिसर्च की वजह अन्य क्षेत्रों जो मानव व्यव्हार के ऊपर निर्भर हैं जैसे इकोनॉमिक्स, फाइनेंस और मार्केटिंग इत्यादि में भी क्रांति आ गयी है। बुक में दिए गए उनके विचारों की मदद से आर्गेनाईजेशन और लोगों को इन्फोर्मेड डिसिशन मेकिंग में सहायता की है, जोखिम मूल्यांकन में सुधार हुआ है मनुष्य की प्रॉब्लम-सॉल्विंग एबिलिटी भी बेहतर हुई है।
Two Systems (दो सिस्टम्स)

हमारे मस्तिष्क की गहराई में 2 अलग-अलग सिस्टम्स हमारे विचारों और निर्णयों को व्यवस्थित करती हैं। इन दोनों सिस्टम्स को समझकर हम अपनी निर्णय लेने की क्षमता को बेहतर बना सकते हैं।
सिस्टम 1
सिस्टम 1 सोच का तेज़ और सहज तरीका है। यह स्वचालित रूप से और सहजता से संचालित होता है, यह बिना किसी सचेत प्रयास के त्वरित निर्णय लेता है। दुसरे शब्दों में हम ये कह सकते हैं की सिस्टम 1 हमारी त्वरित और सहज सोच प्रणाली है। यह गट फीलिंग्स और पैटर्न्स के आधार पर निर्णय लेता है, बिना सचेत सोच के। यह हमें रोजमर्रा की जिंदगी में कुशलतापूर्वक निर्णय लेने और अचानक होने वाले परिवर्तनों पर तुरंत प्रतिक्रिया देने में हमारी मदद करता है।
सिस्टम 1 की विशेषताएँ
- आटोमेटिक– सिस्टम 1 विचार-विमर्श या सचेत प्रयास की आवश्यकता के बिना, सहजता से कार्य करता है।
- इन्टुइटीव– यह निर्णय लेने के लिए गट फीलिंग्स, इम्प्रेशंस और मेन्टल शॉर्टकट पर निर्भर करता है।
- सहज– संलग्न प्रणाली 1 को मानसिक परिश्रम या ऊर्जा की आवश्यकता नहीं है।
- तेज़– यह बिजली की गति से काम करता है और तुरंत प्रतिक्रिया व्यक्त करता है।
सिस्टम 1 के फंक्शन
- भाषा को समझना– सिस्टम 1 बिना किसी एफर्ट के भाषा को प्रोसेस करके, उसे समझने में हमारी मदद करता है।
- जल्दी निर्णय लेना– ऐसी सिचुऎशन्स में जहाँ तुरंत एक्शन लेने की आवश्यकता होती है, सिस्टम 1 हमारी मदद करता है।
- मिसिंग इनफार्मेशन देना– यह स्वचालित रूप से मिसिंग इनफार्मेशन देकर, हमें किसी चीज़ का पूर्ण ज्ञान देता है जिससे हम उसे समझ सकते हैं।

सिस्टम 2
सिस्टम 2 हमारे सोचने के स्लो और डेलीब्रेट सिस्टम है। यह सचेतन नियंत्रण में काम करता है और इसके लिए विचारों को उत्पन्न करने की आवश्यकता होती है। दुसरे शब्दों में ये कहा जा सकता है की सिस्टम 2 हमारे सोचने का स्लो और विचारशील सिस्टम है। यह सोच-समझकर निर्णय लेने में हमारी मदद करता है। सिस्टम 2 क्रिटिकल थिंकिंग, मुश्किल समस्याओं को हल करने और इन्फोर्मेड निर्णय लेने के लिए आवश्यक है।
सिस्टम 2 की विशेषताएँ
- नियंत्रित– सिस्टम 2 चूंकि सचेत प्रयास से काम करता है इसलिए इसके लिए मानसिक संसाधनों की आवश्यकता होती है।
- डेलीब्रेट– सिस्टम 2 उपलब्ध जानकारी पर सावधानीपूर्वक विचार और विश्लेषण करने में सहायक है।
- एफ़र्टफुल– सिस्टम 2 को काम करने के लिए मानसिक परिश्रम और ऊर्जा की आवश्यकता होती है।
- स्लो– यह धीमी गति से काम करता है क्यूंकि इसमें उपलब्ध जानकारी को प्रोसेस करने और evaluate की आवश्यकता होती है, जिसमे समय लगता है।
सिस्टम 2 के काम
- मुश्किल समस्याओं का हल– जब हम किसी चुनौती का सामना करते हैं, तो सिस्टम 2 चुनौती को एनालाइज करके उसका समाधान ढूढ़ने में हमारी मदद करता है।
- सुविचारित निर्णय लेना– ऐसी सिचुएशंस में जहाँ सावधानीपूर्वक मूल्यांकन की आवश्यकता होती है, सिस्टम 2 विकल्पों का मूल्यांकन करता है और इन्फोर्मेड निर्णय में हमारी मदद करता है।
- स्वचालित प्रतिक्रियाओं को ओवरराइड करना– ऐसी सिचुएशंस में जहाँ सिस्टम 1 के सोल्यूशन्स काम नहीं करते, वहां सिस्टम 2 हस्तक्षेप करके हमारी मदद करता है।

Heuristics and Biases (अनुमान और पक्षपात)

बुक के इस पार्ट में ऑथर हमें बताते हैं की कैसे हमारा दिमाग़ निर्णय लेने के लिए शॉर्टकट का इस्तेमाल करता है जिसकी वजह से गलतियाँ होती हैं। ऑथर इन्हे Heuristics यानी अनुमान और Biases यानी पूर्वाग्रह कहते हैं। वह हमें मानव मस्तिष्क के बारे में विस्तार से बताते हैं जिससे ये समझा जा सकता है की कैसे ये शॉर्टकट अच्छे और बुरे दोनों तरह के निर्णय की ओर ले जा सकते हैं।
ऑथर इस बात को समझाने के लिए एक उद्दाहरण देते हुए कहते हैं की कल्पना कीजिये के आप किसी रेस्टोरेंट में बैठकर यह तय करने की कोशिश कर रहे हैं की क्या आर्डर किया जाए। ऐसी सिचुएशन में आप availability heuristic यानी उपलब्धता अनुमान का उपयोग करके ऐसी चीज़ आर्डर करेंगे जिसे आपने ज़्यादा बार खाया है।
ऑथर आगे बताते हैं की उपलब्धता संबंधी अनुमान गलत निर्णयों का कारण बन सकता है। अपनी बात को समझते हुए वह कहते हैं की अगर किसी ने विमान दुर्घटनाओं के बारे में बहुत से समाचार सुने हैं, तो इस बात की अधिक सम्भावना है की उनके मन में हवाई यात्रा को लेकर डर बैठा हुआ हो, भले ही विमान दुर्घटनाएँ वास्तव में बहुत दुर्लभ ही क्यों न हों।
ऑथर बताते हैं कि कई अन्य अनुमान और पूर्वाग्रह हैं जो हमारे निर्णय लेने को प्रभावित करते हैं। इन शॉर्टकट्स और कमियों को समझकर हम अपने जीवन में बेहतर निर्णय ले सकते हैं।
द लॉ ऑफ़ स्माल नंबर्स
ऑथर हमें ‘द लॉ ऑफ़ स्माल नंबर्स’ के बारे में बताते हैं, जो एक कॉग्निटिव बायस है जिसकी वजह से हम बहुत ही सीमित ऑब्सेर्वशन्स से महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकालते हैं। द लॉ ऑफ़ स्माल नंबर्स छोटे सैम्पल्स से चीज़ों के बारे में जनरल निष्कर्ष निकालना है। दुसरे शब्दों में, हम यह समझने की गलती कर सकते हैं की एक छोटा सैंपल साइज बहुत बड़ी पापुलेशन का प्रतिनिधित्व करता है जबकि वास्तविकता इसके उलट होती है। यह कॉग्निटिव बायस हमारी धारणाओं को बनाने में महत्वपूर्ण रोल निभाता है।
द लॉ ऑफ़ स्माल नंबर्स के उदाहरण
- एक सिक्के को 10 बार उछालने और 7 बार हेड्स आने का मतलब यह नहीं है कि सिक्का हेड्स के प्रति पक्षपाती है।
- कुछ विमान दुर्घटनाओं के बारे में सुनने का मतलब यह नहीं है कि उड़ान भरना खतरनाक है।
- किसी देश के कुछ सफल उद्यमियों को देखने का मतलब यह नहीं है कि उस देश का हर व्यक्ति उद्यमशील है।
छोटी संख्याओं का नियम कई संज्ञानात्मक पूर्वाग्रहों में योगदान कर सकता है, जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं-
- उपलब्धता पूर्वाग्रह: उपलब्धता पूर्वाग्रह (Availability Bias) किसी घटना की संभावना का आकलन इस आधार पर करने की प्रवृत्ति है कि हम उस घटना के उदाहरणों को कितनी आसानी से याद कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, यदि हमने हाल ही में विमान दुर्घटनाओं के बारे में बहुत सारी खबरें देखी हैं, तो हम विमान दुर्घटना की संभावना को अधिक आंकने की संभावना रखते हैं।
- प्रतिनिधित्व पूर्वाग्रह: प्रतिनिधित्व पूर्वाग्रह (Representativeness Bias) किसी घटना की संभावना को इस आधार पर आंकने की प्रवृत्ति है कि यह हमारे दिमाग में अन्य घटनाओं से कितनी मिलती-जुलती है। उदाहरण के लिए, यदि हम एक विशिष्ट प्रोफेसर को बुद्धिमान, अनुपस्थित दिमाग वाला और चश्मा पहनने वाला मानते हैं, तो हमें यह मानने की अधिक संभावना है कि एक प्रोफेसर जो बुद्धिमान नहीं है, अनुपस्थित दिमाग वाला या चश्मा पहने हुए है, वह वास्तविक प्रोफेसर नहीं है।
- एंकरिंग पूर्वाग्रह: एंकरिंग पूर्वाग्रह निर्णय या निर्णय लेते समय हमें प्राप्त होने वाली पहली जानकारी पर बहुत अधिक भरोसा करने की प्रवृत्ति है। उदाहरण के लिए, यदि हमसे चीन की जनसंख्या का अनुमान लगाने के लिए कहा जाए और पहली संख्या जिसके बारे में हम सोचते हैं वह 1 अरब है, तो अधिक संभावना है कि हम चीन की वास्तविक जनसंख्या को कम आंकेंगे।
द लॉ ऑफ़ स्माल नंबर्स से कैसे बचें?
द लॉ ऑफ़ स्माल नंबर्स से बचने के लिए ऑथर ने कुछ सुझाव दिए हैं जो इस प्रकार हैं-
- पूर्वाग्रह से अवगत रहें। यह जानना कि द लॉ ऑफ़ स्माल नंबर्स मौजूद है, हमें अपनी सोच के प्रति अधिक आलोचनात्मक होने में मदद कर सकता है।
- उन क्लेम्स पर विश्वास न करें जो छोटे सैंपल साइज पर आधारित हैं। सिर्फ इसलिए कि हमने किसी चीज़ के कुछ उदाहरण सुने हैं इसका मतलब यह नहीं है कि यह कॉमन है।
- कॉन्टेक्स्ट को समझें। कुछ घटनाएँ दूसरों की तुलना में बड़े सैंपल में घटित होने की अधिक संभावना होती हैं। उदाहरण के लिए, अगर किसी सिक्के को 10 बार उछाल कर 7 बार हेड्स आता है तो इस बात की अधिक संभावना है कि उसी सिक्के को 100 बार उछाल कर आपको 7 बार हेड्स मिलेगा।
- विपरीत साक्ष्य खोजें। जब हम किसी दावे पर विचार कर रहे हैं, तो हमें ऐसे सबूतों की तलाश करनी चाहिए जो दावे का समर्थन करते हों और साथ ही ऐसे सबूत भी तलाशने चाहिए जो दावे का खंडन करते हों। इससे हमें स्थिति के बारे में बेहतर दृष्टिकोण बनाने में मदद मिलेगी।
द लॉ ऑफ़ स्माल नंबर्स और इससे होने वाले संज्ञानात्मक पूर्वाग्रहों को समझकर, हम अपने जीवन में बेहतर निर्णय ले सकते हैं।
एंकरिंग इफ़ेक्ट क्या है?
एंकरिंग इफ़ेक्ट एक कॉग्निटिव बायस है जिसकी वजह से हम कोई जजमेंट या निर्णय लेते समय सबसे पहले उपलब्ध जानकारी पर ज़रुरत से ज़्यादा विश्वास कर लेते हैं। यह उपलब्ध जानकारी या एंकर कुछ भी हो सकती है और यह हमारे निर्णय लेने की क्षमता को बहुत प्रभावित करती है।
ऑथर बताते हैं की एंकरिंग बायस बहुत ही पावरफुल होता है क्योंकि यह निर्णय लेने की प्रक्रिया को सरल बनाने का एक तरीका है। जब हमें कोई निर्णय लेना होता है तब हमारे पास काफी सारी इनफार्मेशन इक्कट्ठी हो जाती है और एंकरिंग बायस उस उपलब्ध इनफार्मेशन को सिम्प्लीफाई करके निर्णय लेने में हमारी मदद करता है।
एंकरिंग इफ़ेक्ट के कुछ उद्दाहरण
- नेगोसिएशन्स: अगर आप अपनी सैलरी निगोशिएट कर रहे हैं और आपका एम्प्लायर आपको 20 लाख का ऑफर देता है, तो इस बात की ज़्यादा सम्भावना है की आपकी फाइनल नेगटिआटेड सैलरी 20 लाख के आसपास ही होगी, भले ही आप इससे ज़्यादा क्यों न डिज़र्व करते हों।
- प्राइसिंग: जब आप मार्किट में कोई प्रोडक्ट देखते हो जिसका प्राइस 2000 है तो इस बात की ज़्यादा सम्भावना है की आप उसी प्रोडक्ट को ज़्यादा बेहतर समझोगे जब वो सेल में आपको 1500 का मिलेगा। हालांकि प्रोडक्ट में कुछ भी बदलाव नहीं किया गया है।
एंकरिंग इफ़ेक्ट इतना पावरफुल क्यों है ?
एंकरिंग इफ़ेक्ट इतना पावरफुल इसलिए है क्यूंकि यह हमारे दिमाग के लिए डिसिशन मेकिंग के प्रोसेस को सरल बनाने का एक तरीक़ा है। निर्णय लेते समय हमारे पास इनफार्मेशन का भंडार लग जाता है और ऐसे समय में एंकरिंग इफ़ेक्ट उपलब्ध जानकारी को narrow डाउन करके निर्णय लेने में हमारी सहायता करता है।
एंकरिंग इफ़ेक्ट से कैसे बचें?
एंकरिंग प्रभाव से बचने के लिए ऑथर ने कुछ सुझाव दिए हैं जो इस प्रकार हैं –
- पूर्वाग्रह से अवगत रहें। यह जानना कि एंकरिंग पूर्वाग्रह मौजूद है, आपको अपनी सोच के प्रति अधिक आलोचनात्मक होने में मदद मिल सकती है।
- आपको मिलने वाली पहली जानकारी पर बहुत अधिक भरोसा न करें। कोई निर्णय लेने या निर्णय लेने से पहले सभी जानकारी पर विचार करने के लिए समय निकालें।
- उन दावों पर विश्वास न करें जो एंकरों पर आधारित हैं। अगर कोई आपको सहारा देकर आपको प्रभावित करने का प्रयास कर रहा है, तो उनके बहकावे में न आएं।
- अपने स्वयं के एंकर उत्पन्न करें। यदि आपको कोई निर्णय लेना है, तो किसी अन्य द्वारा आपको दिए जाने से पहले अपना स्वयं का एंकर तैयार करने का प्रयास करें। इससे आपको उनके एंकर से प्रभावित होने से बचने में मदद मिलेगी।
अवेलेबिलिटी (उपलब्धता), इमोशन (भावना) और रिस्क (जोखिम) के बीच क्या संबंध है?
रिस्क यानी जोखिम के बारे में हमारी धारणा इस बात से प्रभावित होती है कि हम किसी घटना (अवेलेबिलिटी यानी उपलब्धता) के बारे में जानकारी को कितनी आसानी से याद कर सकते हैं और उस घटना (इमोशन यानी भावना) के बारे में हमारी भावनाएं कितनी इंटेंस हैं। ऐसी घटनाएँ जो ज़्यादा भावनात्मक होती हैं और जिन्हें भूलना मुश्किल होता है, उन्हें वास्तविकता से अधिक जोखिम भरा माना जाता है।
यह कनेक्शन कैसे काम करता है?
जब हम किसी भावनात्मक घटना का अनुभव करते हैं, तो वह हमें अधिक समय तक याद रहती है। ऐसा इसलिए क्योंकि उस घटना का हमारे दिमाग पर अधिक प्रभाव पड़ता है। परिणामस्वरूप, हमें उस घटना को याद रखने और यह विश्वास करने की अधिक संभावना है कि यह वास्तव में जितना है उससे कहीं अधिक कॉमन है।
उद्दाहरण के लिए विमान दुर्घटनाओं के बारे में बहुत सारे समाचार देखने के बाद हम विमान दुर्घटना की संभावना को अधिक आंक सकते हैं, भले ही विमान दुर्घटनाएँ वास्तव में बहुत दुर्लभ हों। या फिर प्रोसेस्ड फ़ूड प्रोडक्ट्स के खतरों के बारे में एक डाक्यूमेंट्री देखने के बाद हमें यह विश्वास करने की अधिक संभावना हो सकती है कि प्रोसेस्ड फ़ूड प्रोडक्ट्स खाना खतरनाक है, भले ही प्रोसेस्ड फ़ूड प्रोडक्ट्स खाने के जोखिम उतने नहीं हैं जितना कि डाक्यूमेंट्री में बताया गया है।
उपलब्धता और भावना के आधार पर निर्णय में गलतियाँ करने से बचने के लिए हम क्या कर सकते हैं?
- उपलब्धता, भावना और जोखिम के बीच संबंध से अवगत रहें।
- सभी रेलेवेंट इनफार्मेशन पर विचार करें, न कि केवल वह जानकारी जो आपके दिमाग में सबसे आसानी से उपलब्ध है।
- ऐसी बातों पर विश्वास न करें जो अनेकडॉट्स या भावनात्मक भाषा पर आधारित हों।
Overconfidence (अति आत्मविश्वास)

समझ का भ्रम
ऑथर कहते हैं की मनुष्य अपनी समझ को ओवर एस्टीमेट करता है। वह बताते हैं की हमारा सिस्टम 1, जोकि सोचने का तेज़ तरीक़ा है, चीज़ों को समझने के लिए अच्छी कहानियाँ बनाता है, जिससे हमें लगता है की हम उन्हें समझ रहे हैं लेकिन हमेशा ऐसा नहीं होता और कई बार हम भ्रम में होते हैं और यही वजह है की हम अपनी समझ को ज़्यादा आंकते हैं।
द नैरेटिव फॉलऐसी
ऑथर डेनियल काह्नमैन हमें नैरेटिव फॉलऐसी के बारे में बताते हैं और कहते हैं की ये एक ऐसा कॉग्निटिव बायस है जिसकी वजह से हम ऐसी बातों को समझते हैं जो हमारे लिए समझने में आसान होती हैं, भले ही वे अधूरी या गलत ही क्यों न हों। सरल चीज़ों को समझने की इस प्रवृत्ति की वजह से हम मुश्किल चीज़ों के बारे में अपनी समझ को ज़्यादा आंक सकते हैं, जबकि वास्तिविकता यह है की कई बार चीज़ों को समझना उतना आसान नहीं होता जितना की हमें लगता है।
सिस्टम की भूमिका 1
ऑथर सिस्टम 1 जो हमारी हमारी तेज़ और स्वचालित सोच को इन विश्वसनीय कहानियों के निर्माण के लिए ज़िम्मेदार मानते हैं। वह कहते हैं की सिस्टम 1 हमारी मेमोरी को स्कैन करता है, प्रासंगिक जानकारी प्राप्त करता है, और एक कहानी तैयार करता है जिससे स्थिति का पता चलता है। यह एक कुशल प्रक्रिया है जो हमें एक इंस्टेंट डिसिशन लेने में मदद करता है। हालाँकि, इससे हमारी समझ में अति आत्मविश्वास भी पैदा हो सकता है, क्योंकि सिस्टम 1 मान्यताओं (assumptions) से नॉलेज गैप को फिल करता है और कंट्राडिक्टरी एविडेंस (विरोधाभासी साक्ष्यों) को नजरअंदाज करता है।
दूरदर्शिता से अति आत्मविश्वास तक
ऑथर कहते हैं की hindsight, जो पिछली घटनाओं को स्पष्ट और व्यवस्थित तरीके से समझने की क्षमता है, भी समझ के भ्रम पैदा कर सकती है। किसी घटना के घटित होने के बाद, हम पीछे मुड़कर देखते हैं और एक कहानी गढ़ते हैं जो बताती है कि ऐसा क्यों हुआ, जिससे यह अपरिहार्य या पूर्वानुमानित लगने लगता है। इससे हमें यह विश्वास हो सकता है कि हमने घटना को पहले ही समझ लिया होगा, भले ही उस समय हमारी वास्तविक समझ सीमित रही हो।
वैधता का भ्रम
ऑथर कहते हैं की हम अपनी रोज़मर्रा के जीवन में बहुत से छोटे और बड़े निर्णय लेते है और यह निर्णय अक्सर सटीक निर्णय लेने और भविष्यवाणी करने की हमारी क्षमता पर निर्भर करते हैं। हालाँकि अपनी इस क्षमता पर अत्यधिक विश्वास भ्रामक हो सकता है क्यूंकि हमारे द्वारा लिए गए निर्णय हमेशा सटीक नहीं हो सकते और इसी को ऑथर वैधता का भ्रम कहते हैं।
ऑथर वैधता के भ्रम को एक प्रकार का कॉग्निटिव बायस कहते हैं और बताते हैं की इसका भी हमारे डिसिशन मेकिंग पर गहरा प्रभाव पड़ता है। इस भ्रम के लिए भी वह सिस्टम 1 को ही ज़िम्मेदार मानते हैं और कहते हैं ओवरकॉन्फिडेन्स की वजह से वह ऐसे निर्णयों को भी सटीक मानता है जिनके लिए कोई ठोस साक्ष्य या लॉजिकल रीजनिंग न हो।
भ्रम की वजह
ऑथर कहते हैं की वैधता का भ्रम कई कारणों की वजह से होता है जिनमे से कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं –
- उपलब्धता अनुमान: आसानी से सुलभ जानकारी पर भरोसा करने की हमारी प्रवृत्ति, भले ही वह सही और पूरी तस्वीर हमें न बताती हो।
- कथात्मक भ्रांति: सुसंगत स्पष्टीकरण खोजने की हमारी प्रवृत्ति, भले ही वे अपूर्ण या भ्रामक हों।
- विशेषज्ञता में अति आत्मविश्वास: यह विश्वास कि किसी विशेष क्षेत्र में हमारा ज्ञान या अनुभव हमें संज्ञानात्मक पूर्वाग्रहों (cognitive bias) से प्रेरित होने से बचाता है।
ये कारण हमारे निर्णयों में आत्मविश्वास की भावना को बढ़ाते हैं, जिससे हमें विश्वास होता है कि हमारे अंतर्ज्ञान और आकलन वास्तव में जितने सटीक हैं, उससे कहीं अधिक सटीक हैं। वैधता के इस भ्रम का निर्णय लेने में महत्वपूर्ण परिणाम हो सकता है, जिसके निम्लिखित उद्दाहरण हैं:
- खराब निवेश विकल्प: किसी विशेष निवेश की सफलता की संभावना को अधिक आंकने से वित्तीय नुकसान हो सकता है।
- चिकित्सा में गलत निदान: क्लीनिकल निर्णयों पर अति आत्मविश्वास से गलत निदान और अनुचित उपचार हो सकता है।
- त्रुटिपूर्ण रणनीतिक निर्णय: किसी विशेष रणनीति की प्रभावशीलता को अधिक महत्व देने से खराब व्यावसायिक निर्णय हो सकते हैं।
निर्णयों की सटीकता को कैसे बढ़ाएं
वैधता के भ्रम (Illusion of Validity) को कम करने के लिए हमारे निर्णयों की सटीकता में सुधार के लिए ऑथर ने कुछ सुझाव दिए हैं जो इस प्रकार हैं-
- पुष्टिकरण साक्ष्य की तलाश करें: केवल पुष्टिकरण साक्ष्य पर भरोसा करने के बजाय, ऐसी जानकारी की तलाश करें जो आपकी प्रारंभिक मान्यताओं का खंडन करती हो।
- विशेषज्ञों से परामर्श लें: बेहतर और व्यापक परिप्रेक्ष्य हासिल करने और अपने पूर्वाग्रहों को चुनौती देने के लिए संबंधित क्षेत्रों के विशेषज्ञों की राय लें।
- सोच विचार करें: अपनी सोचने की प्रक्रिया को धीमा करें और कई दृष्टिकोणों और संभावित परिणामों पर विचार करते हुए अधिक विस्तृत विश्लेषण करें।
- बौद्धिक विनम्रता विकसित करें: अपने ज्ञान की सीमाओं को स्वीकार करें और नई जानकारी के आलोक में अपने निर्णयों को संशोधित करने के लिए तैयार रहें।
- आत्म-चिंतन का अभ्यास करें: अपने पिछले निर्णयों पर नियमित रूप से विचार करें और सुधार के क्षेत्रों की पहचान करते हुए अपने निर्णयों की सटीकता का मूल्यांकन करें।
इन रणनीतियों को अपनाकर, हम धीरे-धीरे अपनी कथित और वास्तविक वैधता के बीच के अंतर को कम कर सकते हैं, उपलब्ध जानकारी के अधिक सटीक मूल्यांकन के आधार पर अधिक जानकारीपूर्ण और बेहतर निर्णय ले सकते हैं।
इंटुइशन बनाम फार्मूला
ऑथर कहते हैं की निर्णय लेते समय हम अपने सामने उपलब्ध विकल्पों का मूल्यांकन करते हैं, संभावनाओं पर विचार करते हैं और पूर्वानुमान लगाते हैं। निर्णय लेने के लिए हमारे पास चाहे कितनी भी इनफार्मेशन क्यों न हो लेकिन हमारा डिसिशन मेकिंग प्रोसेस दो अलग अलग दृष्टिकोणों पर निर्भर करता है – इंटुइशन और फार्मूला।
इंटुइशन की ताक़त
इंटुइशन या अंतर्ज्ञान, जो हमारी सिस्टम 1 की सोच है और जो तेज़ी और स्वचालित रूप से काम करती है, इंस्टेंट निर्णय लेने के लिए हमारे अनुभवों, नॉलेज और गट फीलिंग का उपयोग करती है। यह रोज़मर्रा के जीवन में लिए जाने वाले अनगिनत निर्णयों में हमारी सहायता करती है बिना किसी गणना या एनालिसिस पर निर्भर हुए।
हालांकि, अंतर्ज्ञान की भी अपनी सीमाएं हैं पूर्वाग्रहों, अनुमानों और भावनात्मक कारणों से प्रभावित हो सकते हैं, जिससे निर्णेय लेने में गलतियाँ हो सकती हैं।
फॉर्मूले की सटीकता
वहीँ दूसरी ओर, फार्मूला निर्णय लेने के लिए एक स्ट्रक्चर्ड और ऑब्जेक्टिव एप्रोच प्रदान करते हैं। वे मैथमेटिकल कैलकुलेशन, स्टैटिस्टिकल विश्लेषण और लॉजिकल रीज़निंग का उपयोग करके भविष्यवाणी करते हैं और उपलब्ध विकल्पों का मूल्यांकन करते हैं। फार्मूला ऐसी स्तिथि में काफ़ी उपयोगी होते हैं जहाँ डेटा प्रचुर मात्रा में हो, पैटर्न्स स्पष्ट हो और संभावित परिणामों को मॉडल किया जा सकता हो।
ऑथर कहते हैं की इंटुइशन की तरह, फार्मूला की भी अपनी सीमाएं होती हैं और वे मानवीय अनुभव की बारीकियों को नहीं पकड़ सकते या वास्तविक दुनिया की स्तिथितियों को प्रभावित करने वाली जटिल कारणों की पहचान नहीं कर सकते। फार्मूला पर अत्यधिक निर्भरता रिजिड और इन्फ़्लेक्सिबल निर्णयों की ओर ले सकता है जो डायनामिक और अनप्रेडिक्टिबल दुनिया के अनुकूल नहीं होते हैं।

कब इंटुइशन पर भरोसा करें और कब फार्मूला पर
इंटुइशन और फार्मूला का चुनाव काफी कुछ स्थिति पर निर्भर करता है। अंतर्ज्ञान द्वारा लिया गया निर्णय ऐसी सिचुएशन में बेहतर होता है जहाँ-
- समय महत्वपूर्ण है– अंतर्ज्ञान त्वरित और तत्काल निर्णय लेने में मदद करता है जो टाइम सेंसिटिव सिचुएशन में काफी महत्वपूर्ण होता है।
- जानकारी सीमित हो– जब डाटा मिलना मुश्किल हो उपलब्ध डेटा अधूरा हो, तो इंटुइशन अनुभव और सामान्य ज्ञान के आधार पर निर्णय लेने में मदद करता है।
- अनुभव व्यापक हो: उन क्षेत्रों में जहाँ लोगों को व्यापक अनुभव हो और उन्होंने विशेषज्ञता हासिल की हो, अंतर्ज्ञान निर्णय लेने के लिए एक मूल्यवान स्त्रोत साबित हो सकता है।
दूसरी ओर, फार्मूला ऐसी सिचुएशन में उपयुक्त होते हैं जहाँ-
- डेटा प्राचुर मात्रा में हो– फार्मूला बड़े डाटासेट का प्रभावी ढंग से विश्लेषण कर सटे हैं, पैटर्न्स और संबंधों की पहचान कर सकते हैं जो इंटुइशन या अंतर्ज्ञान की सहायता से संभव नहीं है।
- अनिश्चितता अधिक हो– फार्मूला अनिश्चित सिचुएशन में अस्सेसेमेन्ट और रिस्क कैलकुलेशन को संभव बनाकर, इन्फोर्मेड डिसिशन मेकिंग में सहायक होते हैं।
- ऑब्जेक्टिविटी आवश्यक हो– फार्मूला भावनात्मक पूर्वाग्रहों और व्यक्तिगत अनुमानों के प्रभाव को ख़त्म कर देते हैं और निष्पक्ष निर्णय लेने में सहायता करते हैं।
एक्सपर्ट इंटुइशन: हम इस पर कब भरोसा कर सकते हैं?
ऑथर हमें बताते हैं की अक्सर निर्णय लेते समय एक्सपर्ट की ओर रुख करते हैं, उनसे मार्गदर्शन लेने के लिए और उन्होंने वर्षों की मेहनत से जो ज्ञान अर्जित किया है उससे सहायता प्राप्त करने के लिए। किसी भी क्षेत्र के एक्सपर्ट्स अपनी फ़ील्ड में घटित हो रही घटनाओं के पैटर्न्स को देख समझ कर हमें सहज निर्णय लेने में मदद कर सकते हैं।
हालांकि, एक्सपर्ट इंटुइशन की भी अपनी सीमाएं हैं। हमारी संज्ञानात्मक प्रक्रियाएँ पूर्वाग्रहों, अनुमानों और संज्ञानात्मक त्रुटियों के प्रति संवेदनशील हैं, जो सबसे अनुभवी पेशेवरों को भी प्रभावित कर सकती हैं। सवाल यह उठता है: हम विशेषज्ञ अंतर्ज्ञान पर कब भरोसा कर सकते हैं?
एक्सपर्ट इंटुइशन पर कब भरोसा करें?
ऑथर कहते हैं की एक्सपर्ट इंटुइशन की विश्वसनीयता कई प्रमुख कारणों पर निर्भर करती है, जो उनकी एक्सपर्टीज और ह्यूमन कॉग्निशन को बैलेंस करती है –
- वातावरण की नियमितता: एक्सपर्ट इंटुइशन ऐसी जगह ज़्यादा सटीक काम करता है जहाँ पैटर्न्स को पहचानना आसान हो और आउटकम को प्रेडिक्ट करना ज़्यादा मुश्किल न हो। ऐसे डोमेन में, विशेषज्ञ सूचित भविष्यवाणियां और निर्णय लेने के लिए अपने ज्ञान का उपयोग कर सकते हैं।
- एक्सटेंडेड एक्सपोज़र: एक्सपर्ट इंटुइशन विकसित करने के लिए किसी भी वातावरण में लंबे समय तक एक्सपोज़र की आवश्यकता होती है। यह एक्सपोज़र लोगों को लम्बे समय तक पैटर्न्स को ऑब्ज़र्व करके एक्सपर्ट्स बनने में सहायक होता है।
- प्रैक्टिस और चिंतन: विशेषज्ञता हासिल करने के लिए केवल अनुभव की ही नहीं बल्कि अनुशासित अभ्यास और निरंतर सीखने की प्रतिबद्धता आवश्यक है। एक्सपर्ट्स अपने पिछले निर्णयों पर विचार करके, उनकी सटीकता का मूल्यांकन करके और नई इनसाइट्स को शामिल करके अपने इंटुइशन को बेहतर बनाते हैं।
बाहरी दृष्टिकोण
हम अक्सर अपनी इनसाइट्स और एक्सपीरियंस की मदद से निर्णय लेते हैं। लेकिन ऑथर कहते हैं की ये परिप्रेश्य जिसे वो ‘इनसाइड व्यू’ कहते हैं, भी सीमित होता है और ये ओवरकॉन्फिडेन्स गलत भविष्यवाणियों की वजह बन सकता है। ऑथर कहते हैं की हमें बेहतर निर्णय लेने के लिए सिर्फ ‘इनसाइड व्यू’ पर निर्भर न होकर ‘आउटसाइड व्यू’ पर भी ध्यान देना चाहिए जिससे हमारा दृष्टिकोण व्यापक बनता है और अंततः हम बेहतर निर्णय ले पाते हैं।
इनसाइड व्यू: एक संकीर्ण दृष्टिकोण
ऑथर कहते हैं की ‘इनसाइड व्यू’ हमारे सिस्टम 1 का ही एक उत्पाद है जो निर्णय लेने के लिए अपनी अर्जित इनसाइट्स और अनुभव का उपयोग करता है। रोज़मर्रा के निर्णय लेते समय यह दृष्टिकोण कुशल लग सकता है, लेकिन अक्सर यह महत्वपूर्ण जानकारी और वास्तविक जीवन की जटिलता को नज़रअंदाज़ करता है।
आउटसाइड व्यू: व्यापक दृष्टिकोण
दूसरी ओर, ‘आउटसाइड व्यू’ हमें हमारे तात्कालिक अनुभवों से बहार निकालकर हमें व्यापक दृष्टिकोण प्रदान करता है। ‘आउटसाइड व्यू’ में हम बाहरी स्त्रोतों से जानकारी प्राप्त करते हैं और एक्सपर्ट्स की राय लेते हैं। ‘आउटसाइड व्यू’ से हम समस्या की अधिक व्यापक समझ प्राप्त करते है, जिससे अधिक जानकारी मिलती है जो बेहतर निर्णय लेने में हरी मदद करती है।
व्यापक परिप्रेक्ष्य की शक्ति
निर्णय लेने में बाहरी दृष्टिकोण अपनाने के कई फायदे हैं:
- ओवरकॉन्फिडेन्स को कम करना– वैकल्पिक दृष्टिकोण को अपनाकर और अपनी ख़ुद की नॉलेज की लिमिटेशन को समझकर, हम अपने निर्णय लेने की सटीकता को ओवरएस्टीमेट नहीं करते हैं।
- पूर्वाग्रहों (Biases) की पहचान– बाहरी दृष्टिकोण हमें उन पूर्वाग्रहों को पहचानने और कम करने में मदद करता है जो हमारे निर्णयों को प्रभावित कर सकते हैं, जिससे बेहतर और निष्पक्ष निर्णय लिए जा सकते हैं।
- बेहतर पूर्वानुमान– व्यापक संभावनाओं पर विचार करके और बाहरी जानकारी को शामिल करके, हम भविष्य की घटनाओं और परिणामों के बारे में अधिक सटीक पूर्वानुमान लगा सकते हैं।
कैपिटलिज्म का इंजन
ऑथर बताते हैं की मानव मनोविज्ञान और आर्थिक व्यव्हार के सम्बन्ध होता है। वह कहते हैं की ऑप्टिमिज़्म यानी आशावाद, ओवरकॉन्फिडेंस की वजह से इनोवेशन और आर्थिक विकास को जन्म देता है।
ऑप्टिमिज़्म: एंट्रेप्रेन्योरशिप का ईंधन
ऑथर कहते हैं की आशावाद, एक ऐसी मानवीय प्रवृत्ति है जो भविष्य को आशा और सकारात्मकता के साथ देखती है, कैपिटलिज़्म यानी पूंजीवाद के इंजन के रूप में काम करती है। यह आशावाद ही है जिसकी वजह से एंट्रेप्रेन्योर्स तमाम तरह की खतरों और अनिश्चितताओं से लड़ते हुए अपने बिज़नेस की शुरू करते हैं और उसे आगे बढ़ाने की सोचते हैं।
वह यह भी कहते हैं की आशावाद एक “आवश्यक भ्रम” के रूप में काम करता है, जो एंट्रेप्रेन्योर्स को विफ़लता के डर को दूर करने और प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने में सक्षम बनाता है। इस आशावाद की वजह से ही वह अपने रास्ते में आने वाली चुनातियों का सामना कर पाते हैं।
आशावाद की दोधारी तलवार
यूँ तो एंट्रेप्रेन्योरशिप के लिए आशावाद आवश्यक है, लेकिन इसमें ओवरकॉन्फिडेन्स का जोख़िम भी होता है। ओवरकॉन्फिडेन्स की वजह से एंट्रेप्रेन्योर्स अपने बिज़नेस के रिस्क को कम आंक सकते है, जिसके परिणामस्वरूप वह ख़राब निर्णय ले सकते हैं और अनरियलिस्टिक एक्सपेक्टेशंस रख सकते हैं। इसी ओवरकॉन्फिडेन्स से रिसोर्सेज बेकार हो सकते हैं, opportunities मिस हो सकती है और बिज़नेस फेलियर भी हो सकते हैं।
ऑप्टिज़्म और रियलिज़्म को बैलेंस करना
ऑथर कहते हैं की ऑप्टिज़्म की सकारात्मक शक्ति का उपयोग तभी किया जा सकता है जब इसे रियलिज़्म यानी यथार्थवाद के साथ बैलेंस किया जाए। वह कहते हैं की एंट्रेप्रेन्योर्स को आशावाद को बनाये रखते हुए अपने सामने आने वाली चुनातियों की स्पष्ट समझ भी विकसित करनी चाहिए।
ऑथर इस बैलेंस को बनाने के लिए कुछ सुझाव भी देते हैं जोकि इस प्रकार हैं –
- फ़ीडबैक लेना– एंट्रेप्रेन्योर्स को अनुभवी मेंटर्स और ऐसे एडवाइजर से फ़ीडबैक लेते रहना चाहिए जो ख़ुद एंट्रेप्रेन्योर्स रह चुके हों।
- रिसर्च करना– एंट्रेप्रेन्योर्स को मार्किट ट्रेंड्स, कॉम्पिटिटर एनालिसिस और फाइनेंसियल प्रोजेक्शन्स के ऊपर सावधानीपूर्वक रिसर्च करनी चाहिए जिससे वह सूचित निर्णय ले सकें और अनरियलिस्टिक एक्सपेक्टेशंस न रखें।
- ग्रोथ माइंडसेट बनाना– ग्रोथ माइंडसेट एंट्रेप्रेन्योर्स को असफलताओं को सीखने के अवसर के रूप में देखने में मदद करती है, जिससे वह अपनी आगे की रणनीति को बेहतर करने में मदद मिलती है।
Choices (विकल्प)
बुक के इस पार्ट में ऑथर हमें बताते हैं की कैसे हमारा दिमाग़, सिस्टम 1, इमोशंस और बायस के प्रभाव में उपलब्ध विकल्पों को चुनता है। साथ ही साथ वह हमें यह भी बताते हैं की कैसे हम मानव व्यव्हार की अनिश्चिताओं के बीच संभावनाओं को मापते हैं और विकल्पों को चुनते हैं।
बर्नौली के एरर
ऑथर, लगभग तीन शताब्दियों पहले डेनियल बरनौली के अपेक्षित उपयोगिता (Expected Utility) के बारे में बात करते हैं। एक्सपेक्टेड यूटिलिटी थ्योरी जिसे क्लासिकल इकोनॉमिक्स में काफी महत्त्व दिया जाता है, कहती है की लोग ऐसे निर्णय लेते हैं जो उनकी एक्सपेक्टेड यूटिलिटी को ज़्यादा से ज़्यादा (maximize) कर सके और यह कैलक्युलेशन विभिन्न परिणामों की संभावना और उनके सम्बंधित मूल्यों पर आधारित होती है।
ऑथर इस थ्योरी को सही नहीं मानते और कहते हैं की ह्यूमन डिसिशन मेकिंग की कम्पलेक्सिटीज़ को ध्यान में नहीं रखती और वह इसमें कई कमियाँ बताते हैं जिनमे से कुछ इस प्रकार हैं –
- रेफेरेंस पॉइंट्स– लोग संभावित परिणामों का मूल्यांकन निरपेक्ष रूप से नहीं, बल्कि रेफेरेंस पॉइंट्स के आधार पर करते हैं, जो उनकी वर्तमान स्थिति या अपेक्षाओं को दर्शाते हैं। यह फ़्रेमिंग प्रभाव तर्कहीन निर्णयों का कारण बन सकता है।
- लॉस आवर्जन– लोग लाभ की तुलना में हानि के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं, जिसका मतलब यह है उनके निर्णय से होने वाली संभावित हानि, संभावित लाभ से ज़्यादा महत्वपूर्ण होती है। हानि से बचने की यह प्रवृत्ति जोखिम से बचने और यथास्थिति को प्राथमिकता देने का कारण बन सकती है।
- अति आत्मविश्वास– लोग अक्सर भविष्य की घटनाओं की भविष्यवाणी करने की अपनी क्षमता को अधिक आंकते हैं, जिससे संभावनाओं और जोखिम का अवास्तविक आकलन होता है।
इन कमियों को दूर करने के लिए डेनियल कहनेमन और अमोस ट्वेरस्की ने प्रॉस्पेक्ट थ्योरी पेश की, जो जोखिम और अनिश्चितता के बीच मानव निर्णय लेने को समझने के लिए एक विकल्प की तरह काम करती है। प्रॉस्पेक्ट थ्योरी, रेफेरेंस पॉइंट्स, लॉस आवर्जन, और प्रोबेबिलिटी weighting, को ध्यान में रखकर विकल्पों का मूल्यांकन करने का एक बेहतर तरीक़ा साबित होती है।
प्रॉस्पेक्ट थ्योरी
काह्नमैन और अमोस टावर्सकी द्वारा विकसित प्रॉस्पेक्ट थ्योरी अनिश्चितता के तहत मानव निर्णय लेने की हमारी समझ में क्रांति ला दी है। यह थ्योरी निर्णय लेने के लिए उपयोग किये जाने वाले विभिन्न मनोवैज्ञानिक कारणों को ध्यान में रखती है।
प्रॉस्पेक्ट थ्योरी की मुख्य बातें
- वैल्यू फंक्शन– प्रॉस्पेक्ट थ्योरी लाभ और हानि को एक रेफेरेंस पॉइंट के रिलेटिव दर्शाती है और अक्सर यह रेफेरेंस पॉइंट वर्तमान स्तिथि का प्रतिनिधित्व करता है। यह रेफेरेंस पॉइंट एक बेंचमार्क की तरह काम करता है जिसके आधार पर एक्सपेक्टेड रिजल्ट्स को evaluate किया जा सकता है।
- लॉस aversion– लॉस aversion, प्रॉस्पेक्ट थ्योरी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है जो कहता है की लोग लाभ की बजाय हानि को लेकर अधिक सेंसिटिव होते हैं। लाभ और हानि के प्रति यह डिफरेंस, डिसिशन मेकिंग को प्रभावित करता है।
- फ्रेमिंग इफ़ेक्ट– जिस तरह से इनफार्मेशन को प्रेजेंट या ‘फ्रेम’ किया जाता है वह निर्णय परिणामों को काफी हद तक प्रभावित कर सकता है। उद्दाहरण के लिए, किसी विकल्प को नुकसान से बचने के रूप में तैयार करने से जोखिम-विमुखता हो सकती है, जबकि उसे लाभ की तरह देखने से जोखिम लेने वाले व्यवहार को बढ़ावा मिल सकता है।
प्रॉस्पेक्ट थ्योरी के ऍप्लिकेशन्स
प्रॉस्पेक्ट थ्योरी के विभिन्न क्षेत्रों में काफी ऍप्लिकेशन्स मिलते हैं, जिनमे से कुछ इस प्रकार हैं –
- अर्थशास्त्र– प्रॉस्पेक्ट थ्योरी ने एकनॉमिस्ट्स को कंस्यूमर बेहेवियर, मार्किट डायनामिक्स और ‘फ्रेमिंग’ का आर्थिक निर्णयों पर प्रभाव को समझने में मदद की है।
- फाइनेंस– संभावना प्रॉस्पेक्ट थ्योरी का उपयोग फाइनेंसियल मार्केट्स में में निवेशक व्यवहार और जोखिम मूल्यांकन के अधिक यथार्थवादी मॉडल विकसित करने के लिए किया गया है।
- पब्लिक पालिसी– नीति निर्माताओं ने स्वास्थ्य, सुरक्षा और पर्यावरण संरक्षण जैसे क्षेत्रों में व्यक्तिगत विकल्पों को प्रभावित करने के लिए प्रॉस्पेक्ट थ्योरी का उपयोग किया है।
द एंडोवमेंट इफ़ेक्ट
ऑथर कहते हैं की endowment effect एक ऐसी मनोविज्ञानिक प्रक्रिया है जिसमे लोग ऐसी चीज़ों को ज़्यादा वैल्युएबल मानते हैं जो उनके पास होती हैं ऐसी चीज़ों को तुलना में जो उनके पास नहीं होती हैं। यह bias, जिसे रोज़मर्रा के और आर्थिक जीवन में देखा जा सकता है, तर्कसंगत निर्णय लेने की पारम्परिक धारणाओं को चुनौती देता है।
मुख्य पॉइंट्स
- ओनरशिप (Ownership) से मूल्य की हमारी धारणा पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है।
- Endowment Effect का आर्थिक निर्णयों पर गहरा प्रभाव पड़ता है।
- विभिन्न मनोवैज्ञानिक कारण जैसे loss aversion, रेफेरेंस के ऊपर निर्भरता और आइडेंटिटी फ्यूज़न Endowment Effect को संचालित करते हैं।
बुरी घटनाएं
ऑथर बताते हैं कि लाभ की तुलना में नुकसान का हम पर अधिक भावनात्मक प्रभाव पड़ता है। इसका मतलब यह है कि हमें किसी चीज को पाने पर जितनी ख़ुशी होती है, उससे कहीं ज़्यादा दुःख हमें किसी चीज़ को खोने पर होता है। हमारी भावनात्मक प्रतिक्रियाओं में यह विषमता अनिश्चितता के तहत हमारे निर्णय लेने पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालती है।
उदाहरण के लिए, अगर किसी व्यक्ति के पास दो विकल्प हैं:
किसी सिक्के को टॉस करने पर अगर टेल्स आता है तो उन्हें 100 रुपये मिलेंगे, लेकिन अगर हेड्स आता है तो उन्हें कुछ नहीं मिलेगा।
इसके बदले आपको निश्चित रूप से 50 रुपये दिए जायेंगे।
वह व्यक्ति कौन सा विकल्प चुनेगा? अधिकांश लोग दूसरा विकल्प चुनेंगे, भले ही दोनों विकल्पों की एक्सपेक्टेड वैल्यू समान (50 रुपये) है। इसका कारण यह है कि लोग जोखिम लेने से बचते हैं और संभावित लाभ हासिल करने की बजाय संभावित नुकसान से बचने की अधिक संभावना रखते हैं।
हमारी भावनात्मक प्रतिक्रियाओं में विषमता यह समझाने में भी मदद करती है कि हमें अच्छी घटनाओं की तुलना में बुरी घटनाओं को याद रखने की अधिक संभावना क्यों है। ऐसा इसलिए है क्योंकि बुरी घटनाओं का हमारी भावनाओं पर अधिक गहरा प्रभाव पड़ता है, और इसलिए उनके हमारी यादों में समाहित होने की अधिक संभावना होती है।
अनिश्चितता के तहत सही निर्णय लेने के लिए लाभ और हानि के प्रभाव के बीच असमानता को समझना महत्वपूर्ण है। यह हमें ऐसे निर्णय लेने से बचने में मदद कर सकता है जिसके लिए हमें बाद में पछताना पड़ेगा।
विकल्पों को समझना: फोरफोल्ड पैटर्न
ऑथर हमें फोरफोल्ड पैटर्न के बारे में बताते हैं जो एक ऐसा फ्रेमवर्क है जो ये समझने में मदद करता है की लोग कैसे चुनते हैं। फोरफोल्ड पैटर्न संभावित आउटकम को चार कैटेगरी में विभाजित करता है, जो इस प्रकार हैं-
- गेन– एक पॉजिटिव आउटकम जिससे वैल्यू या सैटिस्फैक्शन में बढ़ावा मिले।
- लॉस– एक नेगेटिव आउटकम जिससे वैल्यू या सैटिस्फैक्शन में कमी हो।
- निश्चित बात– एक गारंटीड आउटकम जो न गेन हो और न ही लॉस।
- लॉन्ग शॉट– कम संभावना वाला परिणाम जिससे महत्वपूर्ण लाभ या हानि हो सकती है।
फोरफोल्ड पैटर्न का उपयोग करके परिणामों का विश्लेषण करके, हम इस बात को समझ सकते हैं कि लोग निर्णय परिदृश्यों को कैसे नेविगेट करते हैं। ऑथर कहते हैं की लोग जटिल निर्णय लेने की प्रक्रियाओं को सरल बनाने के लिए अक्सर अनुमान, मानसिक शॉर्टकट पर भरोसा करते हैं।
उदाहरण के लिए, जब संभावित लाभ सामने होता है, तो लोगों में जोखिम लेने की अधिक संभावना होती है, जबकि संभावित नुकसान का सामना करने पर, वे जोखिम से बचने की कोशिश करते हैं। इन प्रवृत्तियों को समझने से हमें अधिक जानकारीपूर्ण और तर्कसंगत विकल्प चुनने में मदद मिल सकती है।
दुर्लभ घटनाएं
ऑथर हमें दुर्लभ घटनाओं से जुड़े निर्णय लेने की कठिनाइयों के बारे में बताते हैं और कहते हैं की ट्रेडिशनल डिसिशन मेकिंग ऐसे निर्णय लेते समय काम नहीं करती है जहाँ low probability होती है और हाई इम्पैक्ट होता है। वह “possibility effect” को प्रमुख चुनौती मानते हैं, जो दुर्लभ घटनाओं की सम्भावना को अधिक महत्त्व देने की हमारी प्रवृति को दर्शाता है। इस ओवेरेस्टिमशन की वजह से लोग irrational निर्णय ले सकते हैं जैसे की बिना ज़रुरत बीमा ख़रीदना या फिर दुर्लभ नकारात्मक परिणामों से डर कर, लाभकारी अवसरों को छोड़ देना।
दुर्लभ घटनाओं से बेहतर ढंग से निपटने के लिए संभावित जोखिमों पर विचार करने और अनिश्चितता के चलते सूचित निर्णय लेने के बीच सावधानीपूर्वक संतुलन की आवश्यकता होती है। काह्नमैन ऐसी सिचुएशन के लिए निम्नलिखित सुझाव देते हैं-
- विशेषज्ञ की सलाह लें: उन विशेषज्ञों से परामर्श लें जिन्होंने दुर्लभ घटनाओं को evaluate और manage किया है।
- स्पष्ट रिस्क टॉलरेंस गाइडलाइन्स विकसित करें: निर्णय लेने में मार्गदर्शन के लिए एक्सेप्टएबेल रिस्क लेवल को डिफाइन करें।
- कई परिदृश्यों पर विचार करें: सूचित विकल्प बनाने के लिए दुर्लभ घटनाओं सहित विभिन्न संभावित परिणामों का विश्लेषण करें।
पारंपरिक निर्णय मॉडल की सीमाओं को पहचानकर और दुर्लभ घटनाओं के प्रति अधिक सूक्ष्म दृष्टिकोण अपनाकर, हम अनिश्चितता की स्थितियों में अधिक तर्कसंगत और प्रभावी निर्णय ले सकते हैं।
रिस्क पालिसी
ऑथर बताते हैं की रिस्क पालिसी ऐसा फ्रेमवर्क या गाइडलाइन्स होती हैं जिनका उपयोग हम अनिश्चितता और मुश्किल निर्णय लेते समय करते हैं। ये रिस्क पालिसी बताती हैं की रिस्क को लेकर हमारा दृष्टिकोण क्या है और हम जोखिम लेने की कितनी इच्छा रखते हैं। वह कहते हैं की लोग और संस्थाएं अपने यूनिक सरकमस्टान्सेस को ध्यान में रख कर रिस्क पालिसी बनाती हैं और इन पर कई बातों का प्रभाव पड़ता है जिनमे से कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं –
- रिस्क एट्टीट्यूड– हर किसी के अंदर रिस्क को टॉलरेट करने की अलग अलग क्षमता होती है, कोई रिस्क से डरता है और किसी को रिस्क लेने से कोई डर नहीं है। जो रिस्क लेने से डरते हैं वो संभावित खतरों से बचे रहते हैं वहीँ दूसरी ओर रिस्क चाहने वाले लोग संभावित लाभ की तलाश में जोखिम स्वीकार करने से नहीं डरते।
- निर्णय नियम– आर्गेनाईजेशन अक्सर रिस्क को मैनेज करने के लिए फॉर्मल निर्णय नियम स्थापित करते हैं। ये नियम संभावित जोखिमों के मूल्यांकन के लिए स्वीकार्य जोखिम स्तर, निवेश रणनीतियों और प्रक्रियाओं को निर्दिष्ट कर सकते हैं।
- व्यवहार संबंधी कारण– संज्ञानात्मक पूर्वाग्रह, भावनाएं और अनुमान भी जोखिम नीतियों को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। उदाहरण के लिए, दुर्लभ घटनाओं की संभावना का अधिक आकलन अत्यधिक सतर्क निर्णय की ओर ले जा सकता है।
स्कोर रखना
ऑथर हमें स्कोर रखने के मनोविज्ञान को समझाते हुए कहते हैं की फ़ीडबैक से हमारे निर्णय लेने की क्षमता पर काफी असर पड़ता है। वह ऐसी दो प्रमुख मनोवैज्ञानिक घटनाओं पर प्रकाश डालते हैं जो अनुभव से सीखने और सही निर्णय लेने की हमारी क्षमता पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाल सकते हैं:
- आउटकम bias– यह एक ऐसी ह्यूमन टेन्डेन्सी है जिसमे निर्णय लेने की प्रक्रिया में अपनाई गयी गुणवत्ता की अनदेखी कर निर्णय का मूल्यांकन उसके फाइनल आउटकम के आधार पर किया जाता है। इस पूर्वाग्रह (bias) का नतीजा यह होता है की ये पिछले निर्णयों का गलत मूल्यांकन करता है और सफ़लता या असफ़लता से सीखने की हमारी प्रवृति को भी कमज़ोर करता है।
- दृष्टि पूर्वाग्रह– निर्णय लेते समय हम जो जानते थे उसे सटीक रूप से याद करने और उसका आकलन करने में कठिनाई दृष्टि पूर्वाग्रह कहा जाता है। एक बार जब हमें परिणाम पता चल जाता है, तो हम घटनाओं की भविष्यवाणी करने और उन्हें नियंत्रित करने की हमारी क्षमता को अधिक महत्व देते हुए, अतीत को इस तरह से पुनर्निर्माण करते हैं जो अंतिम परिणाम के साथ संरेखित हो।
ऑथर कहते हैं की इन पूर्वाग्रहों से बचने के लिए निर्णय लेने की प्रक्रिया और उस समय उपलब्ध जानकारी पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है और सिर्फ परिणाम पर ही ध्यान नहीं देना चाहिए।
रिवर्सल्स
ऑथर बुक के इस सेक्शन में हमें ‘डिसिशन रिवर्सल’ के बारे में बताते हैं जो एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमे लोगों के सामने विकल्पों को प्रस्तुत करने के तरीक़े से उनके निर्णय या चॉइस को बदला जा सकता है। काह्नमैन कहते हैं की फ़्रेमिंग में मामूली सा बदलाव करने से लोगों की चॉइस में नाटकीय बदलाव आ जाते हैं, जो इस बात को दर्शाते हैं की उनके द्वारा लिया गया निर्णय या चॉइस ज़रूरी नहीं की तार्किक हो।
इस बात को एक उद्दाहरण से समझते हैं। अगर किसी मेडिकल ट्रीटमेंट को 90% सर्वाइवल रेट या 10% मृत्यु दर के रूप में प्रस्तुत करने से रोगी की चॉइस को काफी हद तक प्रभावित किया जा सकता है, भले ही दोनों विवरण एक ही जानकारी देते हों। इससे पता चलता है की निर्णय लेने की प्रक्रिया में फ़्रेमिंग की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
ऑथर सुझाव देते हैं की फ़्रेमिंग की शक्ति हो समझकर हम अधिक जानकारीपूर्ण और कंसिस्टेंट निर्णय ले सकते हैं, जिससे केवल विकल्पों की प्रस्तुति के आधार पर विकल्प चुनने का जोखिम कम हो जाता है।
Two Selves (दो स्वयं)
बुक के इस पार्ट में ऑथर हमें ‘दो स्वयं’ के कांसेप्ट के बारे में बताते हैं। वह कहते हैं की दो अलग अलग स्वयं होते हैं एक अनुभव करने वाला स्वयं और दूसरा याद रखने वाला स्वयं। अनुभव करने वाला स्वयं वर्तमान क्षण में रहता है और दुनिया का अनुभव करता है। ये स्वयं दर्द और ख़ुशी को महसूस करता है, इसकी फीलिंग्स होती हैं और तत्काल प्रतिक्रिया के आधार पर निर्णय लेता है। वहीँ दूसरी ओर, याद रखने वाला स्वयं वह है जो पास्ट यानी अतीत को देखता है और अपने जीवन के अनुभवों के आधार पर एक नैरेटिव बनाता है। ये ऐसा स्वयं है जो कहानियाँ सुनाता है, जजमेंट लेता है और अपने अनुभव से सीखता है।
एक कहानी के रूप में जीवन
ऑथर हमें बताते हैं की हम सभी के जीवन के बारे में एक कहाँ होती है जिसे हम अपने अनुभवों को समझने और अपने जीवन के अर्थ को ढूंढने के लिए खुद को यह कहानी सुनाते हैं। लेकिन यह कहाँ हमेशा सटीक नहीं होती है। एक सुसंगत और अच्छी कहानी बनाने के लिए हम हम अपनी यादों को सरल और डिसटॉर्ट करते हैं। इस सरलीकरण से ही समस्याएं जन्म लेती हैं, क्यूंकि हमारे निर्णय हमारी यादों पर आधारति होते हैं।
उद्दाहरण के लिए, अगर हम खुद स्कूल में एक बहुत ही सफ़ल स्टूडेंट के रूप में याद रखते हैं तो इस बात की अधिक सम्भावना है की हम एक चैलेंजिंग करियर को चुनेंगे। लेकिन अगर हमारी यादें डिस्टॉर्टेड हैं तो फिर हम खुद को असफ़ल होने के लिए तैयार कर रहे हैं।
ज़रूरी बात यह है की हमें नैरेटिव fallacy के बारे में पता होना चाहिए और निर्णय लेते समय सिर्फ अपनी ख़ुद की मेमोरी पर निर्भर न करके अलग-अलग दृष्टिकोणों का अवलोकन करना चाहिए।
एक्सपेरिएंस्ड वेल बीइंग
ऑथर हमें अनुभवी उपयोगिता (Experienced Utility) और याद की गयी उपयोगिता (Remembered Utility) के बारे में बताते हुए कहते हैं की अनुभवी उपयोगिता वेल बीइंग होने का एक अधिक महत्वपूर्ण उपाय है। ऑथर के अनुसार अनुभवी उपयोगिता, अनुभव करने वाले स्वयं द्वारा महसूस किये गए आनंद या दर्द का माप है और याद की गयी उपयोगिता, स्वयं को याद करने से महसूस होने वाले दर्द या आनंद का माप है। अनुभवी उपयोगिता वेल बीइंग होने का बेहतर पैमाना इसलिए है क्यूंकि अनुभव करने वाला स्वयं ही वास्तव में जीवन जीता है, जबकि याद रखने वाला स्वयं वास्तिविकता का केवल एक सिमित और फ़िल्टर किये गए वर्ज़न का अनुभव करता है।
अनुभवी उपयोगिता को मापने के लिए, ऑथर और उनके सहयोगियों ने एक तकनीक विकसित की जिसे डे रिकंस्ट्रक्शन मेथड कहा जाता है। इस तकनीक में लोगों से अपने पिछले दिन की घटनाओं को याद करने और हर के घटना के दौरान महसूस किये गए आनंद या दर्द का मूल्यांकन करने के लिए कहा जाता है। विभिन्न लोगों पर इस तकनीक का उपयोग करके इन रेटिंग का औसत निकला जाता है और किसी एक घटना की औसत अनुभवी उपयोगिता का माप निकला जाता है।
जीवन के बारे में सोचना
इस चैप्टर में ऑथर डेनियल काह्नमैन, बुक में दिए गए कॉन्सेप्ट्स को समराइज़ करते हैं और रीडर्स को जीवन की उनकी समझ पर विचार करने के लिए कहते हैं। वह इस बात पर भी ज़ोर देते हैं की हमें हमारी चेतना के विरोधी पहलुओं, अनुभव करने वाले स्वयं और याद करने वाले स्वयं के बीच परस्पर क्रिया को समझने की कोशिश करनी चाहिए।
हमारा दिमाग जीवन में घटित हो रही घटनाओं को समझने के लिए नैरेटिव (कहानियाँ) बनाना चाहता है। जीवन की बेहतर समझ विकसित करने के लिए हमें अपने जीवन के विभिन्न पहलुओं जैसे की अनुहाव करने वाले स्वयं, प्रेजेंट फोकस्सड और तत्काल और याद रखने वाले स्वयं भूमिकाओं को भी समझना चाहिए।
इन दोनों स्वयं के बीच संतुलन बनाकर, हम अपनी यादों की सीमाओं को कम कर सकते हैं और अपने अनुभवों के अधिक व्यापक परिप्रेक्ष्य के आधार पर सूचित निर्णय ले सकते हैं।
Conclusion (निष्कर्ष)
तो दोस्तों, ये थी “Thinking Fast and Slow Summary in Hindi”
दोस्तों, डेनियल काह्नमैन द्वारा लिखित ये अदुतीय बुक मानवीय संज्ञान के क्षेत्र में, हमारे दिमाग की जटिल कार्यप्रणाली के बारे में बताती है। मानव सोच के दो तरीकों – सिस्टम 1 और सिस्टम 2 – की खोज करके ऑथर ने छिपे हुए पूर्वाग्रहों और अनुमानों को हमारे सामने रखा है जो हमारे निर्णयों और अनुभवों को प्रभावित करते हैं।
ऑथर हमें अपनी धारणाओं पर सवाल उठाने, अपने पूर्वाग्रहों का सामना करने और अपने दिमाग की सीमाओं को समझने का सुझाव देते हैं।
दोस्तों, हमें आशा है की आपको ये बुक समरी पसंद आयी होगी। इसे अपने फैमिली मेंबर्स और फ्रेंड्स के साथ शेयर करना न भूलें। आप अपना वैल्युएबल फीडबैक कमैंट्स सेक्शन में शेयर कर सकते हैं।
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FAQs (अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न)
What is the conclusion of Thinking, Fast and Slow?
“Thinking, Fast and Slow” teaches us that our thinking is not always rational, and that we can make better decisions by being aware of our cognitive biases. To make better choices, we should slow down, think carefully, and seek out different perspectives.
Is it worth reading Thinking, Fast and Slow?
“Thinking, Fast and Slow” is a must-read book that will enlighten you about human thinking, decision-making, and behavior. It’s a treasure trove of insights that can be applied to various aspects of life, making it a valuable resource for self-improvement.
Why is Thinking, Fast and Slow a good book?
“Thinking, Fast and Slow” is a valuable book because it combines scientific research with practical advice on human decision-making and behavior. The author’s Nobel Prize-winning credentials lend further weight to the book’s insights.
What is the moral lesson of Thinking, Fast and Slow?
The moral lesson of “Thinking, Fast and Slow” is that we should be aware of the limitations of our minds and take steps to overcome our cognitive biases. By recognizing our biases and using deliberate thinking, we can make better decisions in all aspects of our lives.
What are the biggest lessons from Thinking, Fast and Slow?
Here are some of the biggest lessons from “Thinking, Fast and Slow” by Daniel Kahneman:
Our minds are two systems: System 1 is fast, intuitive, and emotional, while System 2 is slow, deliberate, and rational.
System 1 is prone to biases: These biases can lead us to make irrational decisions.
We can overcome biases by engaging System 2: This involves slowing down, gathering information, and considering alternative perspectives.
Our memories are not always accurate: Memories can be distorted and biased, which can lead to poor decision-making.
Framing effects can influence our choices: The way information is presented can affect our decisions, even if the underlying facts are the same.
We are overconfident in our judgments: This overconfidence can lead us to make mistakes.
We are susceptible to the sunk cost fallacy: This is the tendency to continue investing in something even if it is no longer a good decision.
We are motivated by loss aversion: We are more likely to avoid losses than to pursue gains.
We are influenced by social norms: We often conform to the expectations of others, even if we disagree with them.
We can improve our thinking by learning about these biases and heuristics: By understanding how our minds work, we can make more informed decisions.
These are just a few of the many valuable lessons that can be learned from “Thinking, Fast and Slow.” This book is a must-read for anyone who wants to understand human cognition and make better decisions in all aspects of life.
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